अमेरिकी राजनीति में यहूदियों की तरह भारतीयों की तेजी से बढ़ती साझेदारी

राजेंद्र गुप्ता (वरिष्ठ पत्रकार)

अमेरिका मे डोनाल्ड ट्रंप के आने के साथ जिस तरह भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों विशेषकर हिन्दुओ को तरजीह मिल रही है, उससे यह बात साफ होती जा रही है कि वहां यहूदियों के बाद भारतीय सबसे अधिक विश्वसनीय और प्रभावी समुदाय के रूप में अपने को साबित और स्थापित करने में सफलता के नए-नए सोपान चढने मे सफल हो रहे हैं। तमाम विरोधों के बावजूद कश्यप उर्फ कैशपटेल की जिस तरह एफबीआई के मुखिया के तौर पर और एस पाल कपूर की दक्षिण एशियाई मामले के अमेरिकी राजनयिक तौर पर नियुक्ति हुई है, उससे साफ है कि रक्षा मामले जैसे संवदेनशील विभागो में भी उन्हें योग्य और भरोसेमंद समझा जा रहा है। इस संबंध मे गौर करने वाली बात यह भी है कि ट्रंप जहां खुलकर इस्लामी आतंकवाद से निपटने की रणनीति बनाने में लगे हैं, वहीं हिंदू को अच्छा खुले मंच पर स्वीकार कर रहे हैं।
स्वयं ईसानिष्ठ होने के बावजूद उन्हें इस बात से कोई आपत्ति नहीं कि तुलसी गवार्ड के गीता पर हाथ रखकर अमेरिका की राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी के निदेशक के रूपमें या कैशपटेल माता पिता के पैर छूकर जय श्रीकृष्णा का कीर्तनगान के साथ शपथ लेते हैं।

यह सही है कि वर्तमान में अमेरिकी संसद(कांग्रेस) के 100 सदस्यीय उच्च सदन सीनेट में नौ यहूदी सदस्य हैं जबकि अभी तक भारतीय मूल के दो सदस्य से ज्यादा नहीं पहुंचे, लेकिन अमेरिकी में समोसा काकस के रूप ख्यात भारतीय मूल के नौ में से सात सदस्य इस बार के चुनाव में निम्न सदन अर्थात हाउस आफ रिप्रेजेन्टेटिव के लिए चुने गए। इनमें डेमोक्रेट प्रत्याशियों के रूप में रो खन्ना, एमी बेरा, प्रमिला जयपाल, श्री थानेदार, सुहास सुबहमण्यम और राजा कृष्णमूर्ति के नाम जाने पहचाने है। भले ही अमेरिकी संसद 435 सदस्यीय निम्नसदन में यह संख्या छोटी दिखती हो, लेकिन इतिहास की प्रवष्टियों के हिसाब से यह संख्या उत्साह वर्धक है।


भारतीयों की तुलना में यहूदियो का प्रवेश अमेरिका में कोई दो सौ वर्ष पुराना है। यहूदियों का आजाद अमेरिकी संसद में प्रवेश वर्ष 1845 में ही चार्ल्स लेविन के रूपमें शुरु हो गया था जब वे निम्नसदन के लिए चुने गए थे। इसकी तुलना में भारतीयों के रूप में दलीप सिंह सौंध 1975 मेंनिम्नसदन के सदस्य बने थे। अमेरिका में यहूदियों को अपनी जड़ें गहरी जमाने मे हिटलर के जीनोसाइड से मिली वैश्विक स्तर पर मिली सहानुभूति और ओपेनहीमर और आइंस्टीन जैसे यहूदी वैज्ञानिकों की बड़ी भूमिका निभाई थी। ओपनहीमर ने जहा मैनहट्टन प्रोजक्ट मे जुड़कर दुनिया का पहला एटम बम तैयार कर अमेरिका को दुनियामे सामरिक स्तर पर अग्रणीय बनाया, वहीं आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता सि़़द्धान्त से वैज्ञानिक जगत को नई दिशा और अमेरिका को अगता दी थी। यहूदियो और हिंदुओं के बीच रिश्ते को रेखांकित करने के लिए यहां यह जोड़ना आवश्यक है कि इन दोनों ने भगवद् गीता को न केवल पढ़ा था, बल्कि सराहा भी था। इन दोनो वैज्ञानिकों के योगदान का अमेरिका की राजनीतिमें यहूदियों का कद अच्छा खासा बढा़ अमेरिका में जिनकी संख्या महज ढाई प्रतिशत है। वर्ष 1968 मे लुईस एबोलाफिया राष्ट्रपति पद के पहले यहूदी प्रत्याशीबने,। वे वह चुनाव भले न जीतेहों। लेकिननिक्सन के कार्यकाल1969-1974 मे हेनरी किसिंजर अमेरिका के सशक्त विदेशमंत्री बने। यह सिलसिला यहीं नही ठहरा, पूर्व डेमोक्रेट राष्ट्रपति जो बाइडेन के विदेशमंत्री एंतोनीब्लिंकन भी यहूदी थे।राष्ट्रीय राजनीति के अलावा यहूदियों का प्रांतीय राजनीति में भी प्रदर्शन शानदार रहा है। जोर्डपोलिस कोलोरोडोराज्य, जोश शपायरो पेनसिलवेनिया, मेटमेयर डेलावर और जेबीप्रिजेद इलीनियास के गर्वनर रह चुके हैं।
जहां तक भारतीयों की बात है, तो अमेरिकी राजनीति में भारतीयों की पैठ और बढती धाक के पीछे जर्मनीमें यहूदियों के जीनोसाइड से उपजी सहानुभूति से अलग उसकी आध्यात्मिकता के प्रति अमेरिकियों का आकर्षण रहाहै। हालांकि इसकी दस्तक स्वामीविवेकानन्द ने उन्नीसवींसदी के शिकागो सम्मेलन दे दी थी, लेकिन बीसवीं सदीमें योगानंद के बाद सदी के छठवें और सातवें दशक में महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान और स्वामीप्रभुपाद के कृष्णा कांसियशनेस मूवमेंट का रहाहै। महर्षि महेश योगी के वैदिक सिद्धान्तों पर बनी नेचुरलपवर्टी ने तो क्वान्टम भौतक विज्ञानी डा0 जान है गलिन को वर्ष 2000 के अमेरिकी प्रेसीडेंट के उम्मीदवार के रूप् चुनावी मैदान में उतारा था। लेकिन भारतीयां को बडी सफलता तब मिली जब बौबी जिन्दल 2008 में लुसियाना राज्य के गवर्नर चुनगए। तीन साल भी नही बीते थे कि नम्रता रंधावा यानी निक्की हेली साउथ कैरोलीना राज्य की गवर्नर बन गईं।


भारतीयों की इन सफलताओं के साथ तीन बातें थी। पहला इनका जन्म बीसवीं सदी के सातवें दशक में अमेरिका में हुआ। अमेरिका में ज्यादातर भारतीयों का झुकाव डेमोक्रेटपार्टी की ओर था और ये दोनों रिपब्लिकन थे। तीसरा इन दोनों ने धर्म परिवर्तन किया था। लेकिन अमेरिकी राजीति में भारतीयो को असली मौरल बूस्ट अप तब हुआ जब कमलाहैरिस 2016 मे केलीफोर्निया के जूनियर सिनेटर के रूप में चुनी गइंर् और कमाल तो तब हो गया जब 2021 में अमेरिका के वाइस प्रेसीडेंट के रूप में चुनी गई और 2024 में तो गजब हो गया डेमोक्रेटपार्टी ने बाइडेन का पत्ता काट कर उन्हें सीधे ट्रंप के सामने उतार दिया।


अमेरिकी राजनीति में यह उपलब्ध्यिं इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं कि जनसंख्या में वह भले डेढ प्रतिशत हों, लेकिन उनके तेवर पूरे जोर पर हैं। वे अपनी धार्मिक आस्था को लेकर डिफेंसिव नहीं हैं बल्कि वह उनकी शक्ति है। वे अब डेमोक्र्रेट पार्टी तक सीमित नहीं हैं। हाउडी मोदी जश्न में उनकी ताकत को अमेरिका में दर्ज किया गया था। रिपब्लिकन जब 2024 में अपने प्रेसीडेंशियल कैंडीडेट का चुनाव कर रहे थे तब दो भारतीय ट्रंप की स्पर्धा में थे उनमें निक्की हेली से ज्यादा जिस भारतीय ने राजनीतिक हलकों सुगबुगाहट पैदा की थी वह विवेक रामास्वामी थे, जिसने अपने को गर्व से हिंदू कहकर भी अपनी दावेदारी को मजबूत रखा था। महज 39 वर्ष की आयु में साढे सात बिलियन डालन की रोयवेंट साइंस नामक फर्मास्युटिकल कंपनी स्थापित करने वाले इस भारतीय मूल के राजनीतिज्ञ ने अपने प्रतिस्पर्धी को इस तरह प्रभावित किया कि पहले पहले मस्क के साथ डीजीसीए में रखा गया बाद में उन्होंने लुसियाना के गर्वनर का चुनाव लड़ने की गरज से इससे अपने को अलग कर लिया। विवेक रामास्वामी की तरह अमेरिका में इस समय कम से कम दो सौ भारतीय हैं, जो अमेरिकी राजनीति में अपना मुस्तबिल और मुकाम तलाशने में लगे हैं, इनमें शर्मिला भट्टाचार्य, अश्विनी वासुदेव, कमलेश लूला, डा0 सुरेश कुलकर्णी और मधूलिका गुहालकर के नाम अग्रणीय है। यह सही है कि अभी अमीरों की सूची में अमेरिका मे यहूदी, दक्षिण कोरियाई और जापान के उद्योगपति भारतीयों से बहुत आगे हों, लेकिन राजनीति में उनकी दावेदारी सबसे मजबूत दिखाई देती है और आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अगले पांच-दस सालों में ब्रिटेन की तरह अमेरिकी के सर्वोच्च पद पर भी कोई भारतीय मूल का राजनेता नजर आए।

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