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India Pakistan Partition Reason: आखिर क्या है भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की वजह?

14 अगस्त 1947 रात 12:00 बजे,  यह वक्त पूरी दुनिया के लिए तो  एक आम रात का वक्त था, लेकिन भारत के लिए यह  एक नए युग की शुरुआत थी। हर तरफ खुशी की लहर थी, लोगों का हुजूम था क्योंकि शुरुआत होनी थी एक साथ आगे बढ़ने की, तो आखिर ऐसा क्या हुआ (India Pakistan Partition Reason) कि हो गया भारत-पाकिस्तान के बँटवारा?

मौका था बटवारे का,  एक देश का बटवारा, बटवारा भारत से पाकिस्तान के निकलने का,  इस बटवारे की नेताओं में भले ही खुशी होगी लेकिन आवाम में दर्द था। बटवारे का दर्द वो ही अच्छी तरह से जानते हैं, जिन्होंने इस दर्द को खुद सहा था । जिन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा हो, जिन्होंने अपनों को खोया हो, उनके दिलों में ये दर्द आज भी पहले की तरह ही जिंदा है। देश का बटवारा हुआ, दंगे हुए, क़त्ल  हुए,  अगस्त का महीना था  इसी महीने में देश आजाद हुआ और इसी महीने में देश के टुकड़े भी  हो गए। आज हम उसी दिन की बात करेंगे। 

 14 अगस्त 1947दिल्ली के प्रिंसेस पार्क में तिरंगे को सलामी दी जाती है। इस दिन यह पल ना सिर्फ भारत के लिए बल्कि दुनिया के लिए बेहद अहम था क्योंकि अब अंग्रेजों का शासन भारत से खत्म हो चुका  था और  अब यहाँ से भारत देश एक नई दिशा की ओर चलने वाला था। (India Pakistan Partition Reason) अंग्रेजों के खात्मे की ये कहानी 1947 की शुरुआत में लिखनी शुरू हो गई थी। ब्रिटेन में एक क्लेमेंट  इटली की सरकार को ये उम्मीद थी कि भारत बिना बटवारे किए सुलह शांति के साथ आज़ाद होगा, लेकिन अफसोस भारत इस उम्मीद में खरा नही उतर सका और 3 जून 1947 को क्लेमेंट इटली को ऑल इंडिया रेडियो पर ये अनाउंस करना पड़ा की सदियों से तितर बितर पड़े हिंदुस्तान को हम ने युनाइट किया और हमे उम्मीद थी की ये एकता देश के आजाद होने के बाद भी वैसी की वैसी ही बनी रहेंगी  लेकिन हिन्दुस्तानी नेताओं को ये मंज़ूर नहीं हुआ । इसलिए हमारे पास देश का बटवारा करने के अलावा कोई और चारा नहीं हैं।

जिसका मतलब ये हैं की अब ब्रिटिश हिंदुस्तान का राज़ काज दो सरकारों को सौप दिया जायेगा। इसके फ़ौरन बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी देश को सम्बोधित किया और कहा की ब्रिटिश सरकार ने देश के कुछ हिस्सों को भारत से अलग करने का प्रस्ताव दिया है (India Pakistan Partition Reason)और देश को आजाद करने की बात भी कही है। हमने उनकी ये बात मान ली है। हम खुश नहीं है, लेकिन हमें लगता है कि देश के भविष्य के लिए ये फैसला सही है। 14 अगस्त की शाम नेहरू अपने 17 योर करोड़ वाले घर पर इंदिरा गाँधी और पद्मजा नायडू के साथ बैठे हुए थे कि तभी एक फ़ोन बजता है। फ़ोन रखते ही नेहरू का चेहरा लाल पड़ गया था और उनकी  आंखें आंसुओं से भरी हुई थी। दरसल बात ये थी की  लाहौर के नए प्रशासन ने हिंदू और सिख इलाकों के पानी की सप्लाई काट दी थी। लोग प्यास से पागल हो रहे थे और जो औरतें और बच्चे पानी की तलाश में बाहर निकल रहे थे, उन्हें चुन चुन कर मारा जा रहा था। इस बात ने नेहरू को हिला कर रख दिया था  वो इंदिरा को बोलते हैं कि ऐसे में वो अपने 15 अगस्त के भाषण को कैसे दे सकते हैं?

वो कैसे कह सकते हैं कि वो देश की आजादी पर खुश है जब की उनका लाहौर जल रहा है?

तो इंदिरा कहती हैं की आप अपने आज रात के भाषण पर ध्यान दीजिए लेकिन नेहरू का मन अब उखड़ चूका था पर फिर भी 11:55 पर संसद के सेंट्रल हॉल में नेहरू की आवाज गूंजती हैं। ये वो भाषण था जिसे ए ट्रस्ट विथ डेस्टिनी के नाम से जाना जाता है, जिसमें वो कहते हैं कि हमने नियति के साथ एक वादा किया था और अब समय आ गया है कि हम उस वादे को पूरा करें। शायद पूरी तरह नहीं, पर कम से कम जहाँ तक हो सके वहाँ तक तो जरूर,, 

आधी रात के वक्त जब पूरी दुनिया सो रही होगी तब भारत जीवन और आजादी की नई सुबह में अपनी आंखें खोलेगा। सूरज की पहली किरण के साथ आजादी की पहली सुबह होती है, लेकिन ये कोई आम सुबह नहीं थी क्योंकि इस सुबह को पाने के लिए भारत के बहुत से वीरों ने खुद को कुर्बान कर दिया था। हजारों कुर्बानियों से मिली ये खूबसूरत सुबह एक खुशी तो लेकर आई थी लेकिन इसी के साथ एक दर्द भरी दास्तां भी लिखने को तैयार हो रही थी। 

ये दास्तां लिखी जानी थी एक लकीर से और वो लकीर थी भारत और पाकिस्तान के बटवारे की। इस लकीर की वजह से हजारों लोगों को अपनी जान देनी पड़ी और लाखों लोगों को अपने घरों से बेघर होना पड़ा। आजादी से पहले तक जो देशवासी एक दूसरे के साथ मिलकर अंग्रेजों से लड़ रहे थे, आज वो एक दूसरे की जान के प्यासे हो गए थे। इसकी शुरुआत हुई थी 6 अगस्त को। जब पंजाब के अमृतसर में 60 मुसलमानों का सरेआम कत्ल कर दिया गया। इसके 2 दिन बाद यानी 8 अगस्त को लुधियाना के जलालाबाद के पास 74 सिखों का कत्ल कर दिया गया। ये खून खराबा अब रोज़ होने लगा था। हर रोज़ लगभग 100 लोग अपनी जान दे रहे थे। 1947 में अगस्त के पहले हफ्ते में ही अमृतसर की जमीन बेगुनाहों के खून से लाल हो चुकी थी। 

ये हफ्ता पूरे देश के लिए किसी जंग से कम नहीं था। वो जंग जिसमें अपने अपनों की ही जान ले रहे थे लेकिन अब जो होने वाला था वो इससे भी भयानक था। दिल्ली से लाहौर के लिए पाकिस्तान की स्पेशल ट्रैन चलती है जिसमें पाकिस्तान जाने वाले सरकारी अफसर, कर्मचारी और उनके परिवार के लोग मौजूद होते हैं। उस दिन  ये ट्रैन दिल्ली से तो सही सलामत निकलती है लेकिन जैसे ही ये ट्रैन पटियाला पहुंचती है तो इस पर हमला हो जाता है। ये किसी भी ट्रैन पर हुआ पहला हमला था।  हमले में एक बच्चा और महिला की मौत हो जाती है। खबर जब लाहौर पहुँचती है तो बदला लिया जाता है, बदला लिया जाता है अमृतसर आने वाली पहली ट्रैन से,  पहले तो लाहौर स्टेशन पर ही 43 हिंदुओं को मार दिया जाता है और फिर जब 13 अगस्त को लाहौर के मुगलपुरा स्टेशन से अमृतसर के लिए ट्रैन निकलती है तो। उसमें अमृतसर कोई भी जिंदा इंसान नहीं पहुँचता है। ट्रैन लाशो से लबालब भरी हुई होती है। 

हर तरफ खून और लाशें ही थी। इसके बाद ट्रैन पर हमलों का ये सिलसिला आम हो गया। रोजाना लाशों से भरी हुई ट्रैन भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से भारत आ रही थी, लेकिन 15 अगस्त को हुए एक हादसे ने पूरे देश के होश उड़ा दिए। 15 अगस्त की शाम पाकिस्तान से जो ट्रैन अमृतसर के रेलवे स्टेशन पर आई उसमें सिर्फ और सिर्फ लाशे ही मौजूद थी और ट्रैन के आखरी डिब्बे पर एक पर्चा लगा हुआ था। जिस पर लिखा था की ये तोहफा है,   पटेल और नेहरू के लिए आज़ादी का। इसके बाद दोनों तरफ कोहराम मच गया। दिल दहला देने वाला ये नज़ारा ये बताने के लिए काफी था की बटवारा कितना सही था। 

कल तक जो लोग एक दूसरे के लिए जान देने के लिए तैयार थे आज वो एक दूसरे की जान के प्यासे हो गये थे।इस बंटवारे की वजह से हजारों लोगों को रातो रात पाकिस्तान से भारत आना पड़ा और वहीं हजारों लोगों को भारत से अपना घर बार कामकाज सब कुछ छोड़कर पाकिस्तान भागना पड़ा।

इस फैसले ने हजारों घर और परिवार तबाह कर दिए।  बहन बेटियों की इज्जत लूटी गई। दोनों सरहदों को जोड़ने वाली रेलगाड़ियां हजारों लोगों के लिए जिंदा ताबूत बन गई। आज हम बेशक उस मंजर को देख नहीं सकते लेकिन जिन्होंने वो खतरनाक मंजर देखा है वो उसे याद करके आज भी सहम जाते हैं। ये बटवारा नेताओं को उस वक्त भले ही खुश कर देने वाला था। लेकिन इतिहास में ये किसी काले अध्याय की तरह याद किया जाएगा।

1947 में भारत के बटवारे (India Pakistan Partition Reason) का दर्द सबसे ज्यादा महिलाओं ने झेला। अनुमान है कि इस दौरान पिचत्तरहजार  से एक लाख  महिलाओं का अपहरण, हत्या और बलात्कार के लिए हुआ था।  जबरन शादी गुलामी के ये जख्म सब बटवारे में औरतों के हिस्से में आए थे। वाकई 15 अगस्त की सुबह वो सुबह नहीं रही होगी जिसके लिए देश के वीरों ने अपना सब कुछ न्योछावर किया था। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, आजाद ने इस भारत का तो सपना नहीं देखा होगा। 

सोचिये उस दर्द की तासीर क्या रही होगी, जिसने गुजियों की थाली और सेवइयों के डोंगो की अदला बदली रोक दी, जिसने हर शाम नुक्कड़ पर मिलने वाले दोस्तों की यारियां छीन ली जिसने मुसलमान भाइयों से उनकी हवेली हथिया ली, जिसने हिंदुओं के लिए लाहौर की गलियों की रौशनी खत्म कर दी .  

देश 15 अगस्त को आजाद हुआ था लेकिन देश के बटवारे का ये ज़हरीला फैसला 18 जुलाई 1947 को ही ले लिया गया था। 18 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम को स्वीकृति मिली। इसकी नीव माउंटबटन योजना ने रखी थी। इसमें देश की आज़ादी के बदले अंग्रेजों ने इसके दो टुकड़े करने की ठानी थी और इस काम के लिए चुना गया था लंदन के वकील रेड क्लिफ को। वो रेड क्लिफ जो कभी भारत आये ही नहीं थे, जिन्हें ना यहाँ की संस्कृति की जानकारी थी, न तहजीब का इल्म था। ये सिर्फ एक नक्शे पर लकीर खीचने आ रहे थे और उस वक्त शायद उन्हें भी ये नहीं पता था की वो दुनिया का बेहद सीहा फैसला लेने जा रहे थे। 

अंग्रेजों ने फूट डालो राज़ करो की नीती के तहत 1906 में मुस्लिम लीग को मान्यता दे दी। उस समय लीग के लगभग सभी सदस्य मुसलमानों के ऊंचे तबके से आते थे और इसी तरह 1915 में बनी हिंदू महासभा भी हिंदुओं के ऊंचे तबके की ही संपत्ति थी। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा आर एस एस अपने अपने राष्ट्र पर राज़ करना चाहती थी जबकी। कांग्रेस और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का लक्ष्य आजादी बना था। अब अगर एक देश के लिए लक्ष्य (India Pakistan Partition Reason) अलगअलग होंगे तो रहा मुश्किल तो होगी ही। इसके बाद पंडित नेहरू ने 1937 में मुस्लिम लीग के सदस्य को उत्तर प्रदेश की सरकार में शामिल करने से इंकार कर दिया।     

इस इंकार ने चोट का काम किया। लीग में गुस्सा बढ़ रहा था। 1945 में शिमला सम्मेलन हुआ। इसमें वायसरॉय लॉर्ड वेविल के साथ देश के बड़े नेताओं ने हिस्सा लिया। हालाकी ये सम्मेलन विफल रहा था। जिन्ना भी इस सम्मेलन में शामिल हुए थे।  ये वही जिन्ना है जिन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता पर ज़ोर देते हुए मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया था। 

लेकिन कांग्रेस से नाखुशी के बाद जिन्ना ने अलग देश की मांग कर ली क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि भारत में मुसलमानों के साथ परायो जैसा बर्ताव हो रहा हैं। इसके अलावा बटवारे की एक वजह ये भी मानी जाती हैं की जिन्ना भारत के पहले प्रधानमंत्री बनना चाहते थे लेकिन उन्हें लगता था की वो पूरे भारत के प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे। इसलिए उन्होंने अलग मुल्क की मांग की। बटवारे के पीछे असल राजनीति के कारण क्या थे (India Pakistan Partition Reason) ये अभी तक क्लियर नहीं हैं।अंग्रेजों की डिवाइड एंड क्विटन नेहरू और जिन्ना की सत्ता के लिए बेसब्री दो कोमा का सिद्धांत और पता नहीं कौन कौन से एक्सप्लनेशन के जरिये इस ऐतिहासिक त्रासदी की वजह जानने की कोशिश की जाती है। बहरहाल, कहानियों अलग अलग जरूर है लेकिन दर्द एक है और वो दर्द है बटवारे का, जिसका दर्द लोग अब तक नहीं भूल पाए हैं। 

सीमा रेखा तय होने के बाद लगभग एक करोड़ 45 लाख  लोगों ने सीमा पार करके अपने नए देश में शरण ली। 1951 की विस्थापित जनगणना के अनुसार विभाजन के बाद 72लाख 26हजार  मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गए और 72 लाख 49 हजार  हिंदू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आये। पंजाब और लाहौर ने सबसे ज्यादा दर्द सहा। आज भी ना जाने कितनी कहानियाँ  अनसुनी हैं। आज भी ना जाने कितनी दास्तानों को लफ्ज़ नहीं मिल सके हैं। आकड़ो की माने तो बटवारे में 2 करोड़  लोगो की जान गयी। लेकिन ये सिर्फ एक मामूली  आंकड़ा है। ट्रेनों में लाशों का जत्था मोहल्ले में अगजनी और गांव के पलायन में गई जानो की ठीक गिनती कर पाना नामुमकिन है और ऐसे ना जाने कितने हालात उस वक्त एक साथ गुजर रहे थे।उन सबको किसी एक कहानी में समेट पाना नामुमकिन है। 

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