पश्चिम की वंचनाओं की प्रयोगशाला का शिकार न बने भारत

राजेन्द कु्मार गुप्ता

ट्विटर के पूर्व सीईओ जैक डोरसी के यू ट्यूब चैनल ब्रेक्रिंग प्वाइंट में इस आरोप के बाद कि वर्ष2021 मे किसान आंदोलन के दौरान उन पर देश की संप्रभुता के नाम पर सरकार आलोचक पत्रकारों के ट्वीट्स को सेंसर करने का यहां तक दबाव था कि यदि उन्होंने देश के कानून से बाहर जाने का रवैया न बदला तो भारत से उनका बोरिया बिस्तर समेट दिया जाएगा।
डोरसी के इस बयान पर अपेक्षित प्रतिक्रियाएं आईं हैं। केन्द्रीय आईटी मिनिस्टर राजीव चंद्रशेखर ने तत्कालीन रविशंकर प्रसाद और संसदीय आई टी सलाहकार समिति के अध्यक्ष शशि थरूर के कथनों और कार्रवाइयों का उल्लेख करते हुए इसे सरासर झूठ और टिवटर के इतिहास के संदिग्ध काल की लीपापोती करना बताया है। दूसरी ओर कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष डोरसी के बयान से पुलकित है, क्योंकि उसे मोदी सरकार को तानाशाह और भारत में लोकतंत्र के खतरे में के नेरेटिव को सेट करने के लिए सारोस फंड मैनेजमेंट के पूर्व मालिक जार्ज सोरोस के बाद एक और विदेशी का साथ मिल गया है।
राहुल गांधी ने हाल में सैन्फ्रैंसिसको वाशिंगटन और अमेरिका में जks तमाम सवाल दागे थे उस पृष्ठभूमि में इस मुद्दे को हवा में पत्थर उछालने की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस समय अमेरिका की राजकीय यात्रा पर जा रहे हैं दुनिया में उनकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर है। उन्नीस-बीस विपक्षी दल जब 23 जून को पटना में बैठक कर रहे होंगे तब उनके कान वाशिंगटन में न्यूयार्क में मोदी से किए गए सवालों और बयानों पर भी होंगे-हुआं क्या हुआ़,।


अभी यह तय नहीं कि अपनी राजकीय यात्रा के पडावों में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिका की शीर्ष कंपनियों के सीईओ से मिलेंगे, उसमें दुनिया के सबसे अमीर और ट्विटर के नए मालिक एलन मस्क भाग लेंगे या नहीं, लेकिन मोदी पर विवादित बीबीसी डाक्यूमेंट्री पर मस्क की जो स्टैंड है-जेल जाने से अच्छा है कि हम उस देश के कानून के दायरे में काम करें, मामला अधिक तूल पकडेगा ऐसा नहीं लगता। हां, 180 देशों की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का स्थान वर्ष 2022 में 150 से लुढ़ककर 2023 में 161 पर आ गया है वह अगले साल और नीचे जा सकता है। वैसे भारत इस इंडेक्स की प्रिय सूची में कभी नहीं रहा। मनमोहन सिंह सरकार के समय वर्ष 2013 में भी हमारी रैंकिंग 140 पहुंच गई थी। दरअसल रिपोर्टर्स विदाउट फ्रंटियर्स अर्थात आरएफस नाम का जो संगठन यह सूची जारी करता है वह नान प्रोफिट एंड नान गर्वनमेंटल आर्गनाइजेशन है और उसे संयुक्त राष्ट् की परामर्शदात्री स्टेटस भी प्राप्त है। छोटे-छोेटे योरोपीय देश जिनकी आबादी भारत के बड़े शहरों जितनी भी नहीं है प्रायः इस सूची में शीर्ष पर होते है। उसका कारण तीसरे विश्व और एशियाई देशों की तुलना में इन देशों की सामाजिक सरंचना उतनी जटिल नहीं है। 1985में स्थापित, जिसका कि मुख्यालय पेरिस में है उसके शीर्ष ढांचे में आपको भारत कोई भी सर्वस्वीकार्य पत्रकार नजर नहीं आएगा। भारत का विपक्ष तातकालिक चुनावी लाभ के नेरेटिव के हिसाब से भले कुछ कहे लेकिन विदेशमंत्री एस जयशंकर का यह आब्जर्वेशन और अप्रैल में दिया यह बयान गलत नहीं है कि पश्चिम दूसरे देशों के आन्तरिक मामलों में दखल अपना ईश्वरीय अधिकार मानता हैं। पश्चिम केे लिए उसकी समस्याएं और मूल्य दुनिया की समस्याएं है और दुनिया के देशों की समस्याओं को वह हल्के में लेता है और अपने हितों और मूल्यो के हिसाब से देखता है। इसका ताजा उदाहरण संयुक्त राष्ट् द्वारा जारी वल्र्ड हैपीनेस रिपोर्ट है, जिसमें 136 देशों में भारत को 126 वां स्थान दिया है। भारत के एसबीआई ईकोरैप ने इस पर सवाल खडा करते हुए कहा है कि हैपीनेस का सरोकार सामाजिक संबंधों से है जो भारत में दुनिया के किसी भी देश से अधिक व्यापक और परोपकारी है और इस दृष्टि से भारत का स्थान 48 वां आता है। प्रेस की स्वतंत्रता या सामाजिक समरसता ही नहीं, शि़क्षा हो या स्वास्थ्य या अपराध के मानदंड पश्चिम को भारत की उपलब्धियां स्वीकार करने मे ंहमेशा गुरेज रहा है। भारत ने कोविड महामारी के दौरान टीकों के विकास से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं जुटाने और आनुपातिक ढंग से मौतों पर बेहतर लगाम लगाने की मिसाल पेश की थी, लेकिन 195 देशों के ग्लोबल हैल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स में हम 66 वां स्थान हासिल कर औसत से थोड़े सी ही उपर हैं। महामारी में हमारी उपलब्धियों को टेंपोरेरी मानकर रैपिड रिस्पांस केटगरी में अभी भी तीस से थोड़े ज्यादा अंक के साथ औसत से नीचे दिखाया गया है। वे यह बात बहुत जल्दी भूल गए कि कोविड महामारी में उनकी सारी आधुनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाएं चरमरा गई थी और लाशों के ढेर लग गए थे और मार्चरी में महीनों पड़े रहे थे। आपराध बाहुल्य देशों की श्रेणी में भारत सतत्तरवें स्थान पर है और गन कल्चर वाले अमेरिका या ब्रिटेन से थोड़ा ही बेहतर है और टर्कीर्, जर्मनी और जापान से बहुत पीछे हैं। हम भले आए दिन पढते रहते हों कि दुनिया की इन बड़ी कंपनियों के सीईओ, विश्व बैंक और आईएमएफ के हैड या नासा की इस शाखा के हैड इंडियंस हैं, लेकिन ओवरआल शिक्षा मे ंहमें 32वें स्थान पर तुर्की और यूनान जैसे देशों के बाद आंका जाता है। दुनिया की शीर्ष 300यूनीवर्सिटीज में हमारी केवल 8 यूनीवर्सिटी हैं। टाइम्स की हायर एजुकेशन की सूची में हमं चैथा स्थान प्राप्त कर भले थोड़ी राहत महसूस करें, लेकिन सच तो यह है कि वैश्विक आंकलन के जो मानदंड हैं, वे हमारी उपलब्ध्यिों के साथ न्याय नहीं करते। इसका एक बड़ा कारण हम विभिन्न वैश्विक मंचों पर लंबे समय तक अपनी गरीबी का महिमामंडन करते आए हैं, जिसके चलते हमारी प्रगति को अब भी शंकालु होकर देखा जाता। आईटी, आटोमोबाइल्स, मेटृो, चैड़ी सड़कों के जाल, श्वेत और हरित क्रांति के बावजूद दुनिया के सामने हमारी छवि यह है कि हमारे यहां करोड़ोे लोग भूखे पेट सोते हैं, गाएं सड़कों के बीच में खड़ी होकर जाम लगा देती हैं। अमेरिका या हो फ्रांस या ब्रिटेन उनके इंडस्ट्यिलिस्ट या बिजनेशमैन जब हमारे साथ सौदा करती हैं, तो उनकी सरकारें उसमें सहयोग और खुशी जाहिर करती हैं, ताजा उदाहरण एयर इंडिया का अमेरिका से 250 विमान खरीदने पर बाइडेन प्रशासन की पाजटिव रिएक्शन का है और हमारी राजनीतिक संस्कृति अपने इंडस्टिृयलिस्ट को अभी तक जनता के समक्ष अस्पृश्य और शंका की दृष्टि से देखने की बनी हुई है। नरसिंहाराव की सरकार ने भले 1991 में अर्थव्यवस्था को राष्टृीय और अन्तरराष्टृीय निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया हो, लेकिन पब्लिक सेक्टर का हैंगओवर अभी गया नहीं। इससे पार पाना बहुत जरूरी है, वरना हम पश्चिम की हमें तुच्छ समझने की नीति और नीयत का उतनी मजबूती से जवाब नहीं दे पाएंगे जितना आवश्यक है। हम वक्त के उस मुहाने पर खड़े हैं, जहां चीन हो या यूरोप या अमेरिका सबको इलहाम हो ही जाना चाहिए कि भारत किसी के लिए वंचनाओं की प्रयोगशाला नहीं रहा।
विश्लेषक न्यूज जंगल मीडिया के दिल्ली एनसीआर के विशेष संवाददाता हैं

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