न्याय की देवी का स्वरूप: प्रतीकात्मक बदलाव

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हाल ही में ‘न्याय की देवी’ की प्रतिमा के स्वरूप में बदलाव किया गया है। यह बदलाव महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न्याय प्रणाली के स्वदेशीकरण की दिशा में एक कदम है। वर्तमान में, हम जिस न्याय प्रणाली का उपयोग कर रहे हैं, वह औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों से हमें मिली है। इसी वजह से, सुप्रीम कोर्ट परिसर में यूरोपीय शैली में स्थापित ‘न्याय की देवी’ की मूल अवधारणा भी रोमन सभ्यता पर आधारित रही है।

रोमन न्याय की देवी का प्रतीकात्मक अर्थ

‘न्याय की देवी’ के स्वरूप को देखें तो यह रौबदार देवी दाएं हाथ में तराजू और बाएं हाथ में तलवार लिए दिखाई देती थी। देवी की आंखों पर बंधी पट्टी यह दर्शाती है कि वह बिना किसी पक्षपात के न्याय करती है। तराजू सभी पक्षों को समान रूप से सुनने का प्रतीक है और तलवार न्याय के पालन की गारंटी देती है।

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रोमन सभ्यता में इस देवी को ‘जस्टिशिया’ कहा जाता था, और आंखों पर बंधी पट्टी का एक अर्थ यह भी था कि कानून सामाजिक सरोकारों से अंधा है। इसी अवधारणा को अब बदलते समय के साथ कई देशों ने संशोधित किया है।

भारतीय न्याय प्रणाली का स्वदेशीकरण

भारत में ‘न्याय की देवी’ की कोई खास पारंपरिक संकल्पना नहीं है। यहां शनि को न्याय का देवता माना गया है, लेकिन शनि अधिकतर भय और अनिष्ट का प्रतीक रहे हैं। भारतीय दर्शन में न्याय का आधार धर्म और कर्म पर आधारित है, जहां जीवन के पाप-पुण्य का परिणाम अगले जन्म में मिलता है।

ऐतिहासिक रूप से भी, न्याय का निपटारा पंचायत या सामाजिक स्तर पर होता था। राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था और उसका धर्माचरण न्याय की गारंटी माना जाता था। इसी कारण अलग से न्याय की देवी की संकल्पना विकसित नहीं हुई।

सुप्रीम कोर्ट में नई प्रतिमा की स्थापना

सुप्रीम कोर्ट में स्थापित नई प्रतिमा मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड की परिकल्पना के अनुरूप है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ‘न्याय की देवी’ की छवि भारतीय होनी चाहिए। नई प्रतिमा में देवी भारतीय चेहरा लिए हुए हैं, जो आक्रामक और रौबदार नहीं, बल्कि सौम्य है।

इस प्रतिमा में देवी साड़ी पहने हुए हैं और उनकी आंखें खुली हैं, जिससे यह संदेश दिया जा रहा है कि वह दुनिया को देख रही हैं। देवी के दाएं हाथ में तलवार की जगह संविधान है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि न्याय संविधान के आधार पर निष्पक्ष रूप से दिया जाएगा।

न्याय प्रणाली की चुनौतियाँ

हालांकि ‘न्याय की देवी’ का स्वरूप बदलना प्रतीकात्मक रूप से अच्छा कदम है, लेकिन भारतीय न्याय प्रणाली की वास्तविक समस्याएं अभी भी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। देशभर की अदालतों में जजों की कमी एक बड़ी समस्या है। निचली अदालतों में 5,388 जजों के पद खाली पड़े हैं, और हाई कोर्ट में 327 जजों की कमी है।

लंबित मुकदमों का अंबार

देशभर की अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या भी चिंता का विषय है। निचली अदालतों में 5.1 करोड़ मामले लंबित हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट में 82 हजार और हाई कोर्टों में 58.62 लाख मामले अभी भी निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। दीवानी मामलों में फैसलों की गति और भी धीमी है, जिससे कई मामले दशकों तक चलते रहते हैं। नीति आयोग के अनुसार, यदि न्याय प्रणाली इसी गति से काम करती रही, तो सभी लंबित मुकदमों के निपटारे में 324 साल लगेंगे।

न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता

यह आवश्यक है कि न्याय त्वरित रूप से मिले, अन्यथा वह कितना भी निष्पक्ष क्यों न हो, उसका कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाता। भारत में प्रति दस लाख आबादी पर केवल 21 जज काम कर रहे हैं, जबकि यूरोप में यह संख्या 210 और अमेरिका में 150 है। यदि भारतीय न्याय प्रणाली को अमेरिकी मानकों के अनुसार सुधारना है, तो भारत में कम से कम 2 लाख 17 हजार जजों की आवश्यकता है, जबकि वर्तमान में यह संख्या 20 हजार से भी कम है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट में ‘न्याय की देवी’ का स्वरूप बदलना एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक कदम है, लेकिन न्याय प्रणाली की सीरत में भी बदलाव की आवश्यकता है। न्याय त्वरित और प्रभावी तरीके से कैसे मिलेगा, यह अभी भी एक बड़ा सवाल है। उम्मीद है कि इस प्रतीकात्मक बदलाव के साथ ही न्याय प्रणाली में भी सुधार होगा, जिससे न्याय सभी तक पहुंच सके।

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