प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा का वर्ष 2024 में लोकसभा आम चुनाव का विजय रथ रोकने के लिए विपक्ष को एकमंच पर लाकर महागठबंधन बनाने की जनता दल यूनाइटेड के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मुहिम को उस समय धीरे से जोर का झटका तब लगा जब पटना में 12 जून 2024 को प्रस्तावित 16 विपक्षी दलों के राजनीतिक नेताओं की बैठक को कांग्रेस की सहूलियत वाली वाली अगली तिथि तक के लिए स्थगित करना पड़ा। कांग्रेस, द्रमुक और कम्युनिस्ट नेताओं की व्यस्तता और अनुपब्लधता का बहाना गले के नीचे उतर सकता था यदि स्थगन की औपचारिक घोषणा करते समय नीतीश कुमार यह न जोड़ते कि मैने यह बात बिल्कुल स्पष्ट कर दी है कि जो भी पार्टी इस बैठक में शामिल होने के लिए सहमत हुई हैं, उनके मुखिया ही इस बैठक में भाग लेने आना चाहिए। बीच में कांग्रेस के नेता अखिलेश प्रताप सिंह की ओर से फीलर आया था कि उनका कोई मुख्यमंत्री और कोई वरिष्ठ नेता बैठक में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर सकता है।
बिहार में भाजपा से नाता तोडकर राजद के साथ सरकार बनाने के बाद सुशासन बाबू भाजपा को केन्द्र से बेदखल करने के लिए हालांकि पिछले साल अगस्त 2022 से ही लग गए थे, जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने उनसे पटना में जाकर खुद मुलाकात की थी और सितंबर में जब उनकी पूर्व उप्रधानमंत्री देवीलाल की जयंती पर ओमप्रकाश चौटाला, सुखबीर सिंह बादल और माकपा नेता सीताराम येचुरी से भेेट हुई थी, लेकिन विगत दो माह से वह ज्यादा ही सक्रिय हैं और उन्होंने कांग्रेस के राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे से लेकर राज्यों के जिन क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों से मुलाकात की है, उनमें ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, शरद पवार ,उद्धव ठाकरे, अरविन्द केेजरीवाल, एच डी कुमार स्वामी और नवीन पटनायक से मुलाकात की है। द्रमुक नेता स्तालिन की उनसे फोन पर बात हुई है। लेकिन जैसे जैसे वक्त का पहिया आगे बढ़ रहा है, सीटों का फार्मूला तय कर विपक्ष को एक साथ लाने का काम सैद्धान्तिक तौर पर जितना सरल और सुहावना लग रहा था, उतना ही दूूर और दुरूह ल्ग रहा है।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने भाजपामुक्त भारत का सबसे पहले नारा दिया था। नीतीश के जनतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड. राजद के साथ सरकार बनाने के बाद सबसे पहले लपककर नीतीश से पटना में मिलने वालों में राव ही थे। अब उनके तेवर ढीले नजर आ रहे हैं। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की वापसी, दिल्ली शराब कांड मे बेटी कविता से निदेशालय की अनेक बार पूछताछ और कारोेबारी पी सरथ रेड्डी के सरकारी गवाह बनने से भारतीय राष्टृीय समिति अब यू टर्न लेती नजर आ रही है। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष केटी रामाराव ने विपक्ष के पटना कानक्लेव से किनारा करते दो जून को ही साफ कर दिया कि पार्टी किसी विशेष व्यक्ति या पार्टी विरोध की नीति को सही नहीं मानती और न ही उसे तीसरे मोर्चे का गठन व्यावहारिक लगता है। उधर दिल्ली में तबादलो पर सर्वोच्च न्यायालय के राज्य सरकार के पक्ष में फैसले के बाद केन्द्र के अध्यादेश के विरोध मे केजरीवाल द्रमुक. जनता दल यूनाइटेड. राजद, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना उद्धव गुट, भारत राष्टीय समिति, राष्ट्वादी कांग्रेस और माकपा का समर्थन जुटाने मे ंतो सफल रहे, लेकिन कांग्रेस का रवैया अभी तक साफ नहीं है। अजय माकन सहित कांग्रेस के प्रादेशिक नेता इस मामले में आप का साथ देने को मना कर रहे हैं और आखिर फैसला आलाकमान पर छोड़ दिया है। अब जबकि शराबकंाड में सिसौदिया को अदालत से कोई राहत मिलती दिखाई नहीं पड़ रही, उच्च न्यायालय ने 5 जून 2023 को भी उन्हें अंतरिम जमानत देने से इनकार कर दिया है लगता नहीं कि जिस आप ने दिल्ली से पंजाब तक कांग्रेस का खेल बिगाड़ा है, राहुल गांधी और खरगे दिल्ली सरकार की राह आसान करेंगे।
ममता बनर्जी आज भले विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस के साथ मंच साझा करने को तैयार हों, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा सुगबुगाहट लेती रहती है। विपक्ष का कानक्लेव पटना में कराने का सुझाव या शरारत उन्हीं की थी, क्योंकि मार्च 1974 में जिस जे0पी0 आंदोेलन ने अपने समय की सबसे शक्तिशाली राजनेता इंदिरागांधी को केन्द्रीय सत्ता से हटाने में मुख्य भूमिका निभाई थी, वह यहीं से शुरू हुआ था। अब भला कांग्रेस या गांधी परिवार को क्यों अच्छा लगेगा कि जिस शहर ने कभी उनके पतन का इतिहास लिखा हो, वहां खड़े होकर वे मोदी या भाजपा को चुनौती दें। ममता ने यह जो खुजली वाली गाजर घास कांग्रेस की कमर में चिपकाने की कोशिश की है, पार्टी उससे दूर रहने की कोशिश कर सकती है और यह कानक्लेव न केवल नई तिथि बल्कि नए स्थान पर आयोजित कराने का दबाव बना सकती है। वैकल्पिक स्थान के लिए शिमला या बेंगुलुरू का नाम लिया जा सकता है, जहां कांग्रेस ने विधानसभाई चुनाव में परचम लहराया है। तिथि भी जून से आगे ले जाई जा सकती है, क्योंकि 25 जून को भाजपा आपातकाल का काला दिवस मना रही होगी। कांग्रेस को अब यह भी लगने लगा है कि विपक्षी एकता की मुहिम राहुल की अपेक्षा नीतीश और ममता को अधिक तरजीह मिल रही है।
देश में विपक्ष केवल बीस दलों तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश मे बीएसपी, उड़ीसा में बीजू जनता दल और आंध्र मे ंतो सत्तारूढ वाईएसआर कांग्रेस और तेलगू देशम बड़ी ताकत हैं और महागठबंधन से दूर हैं। बीच-बीच में विभिन्न मुद्दों पर राय भी अलग अलग होती है। म्सलन संसद के उदघाटन के मुददे पर इन दलों ने ही नहीं अकाली दल ने भी सरकार का साथ दिया था और हाल ही में बालासोर ट्रेन दुर्घटना के मुद्दे, पर जब कांग्रेस केन्द्र सरकार को चारों ओर से घेर रही है, रेलमंत्री के इस्तीफे की मांग कर रही है, उड़ीसा जहां यह दुर्घटना हुई मुख्यमंत्री नवीन पटनायक चुप हैं, ममता बनर्जी ने घटनास्थल का दौरा कर कांग्रेस से इतर मुद्दे उठाए हैं और स्वयं नीतीश कुमार सधे स्वर में बोल रहे हैं। उन्हें यह तो कहा कि मैने तो बंगाल में रेल दुर्घटना पर इस्तीफा दे दिया था, लेकिन यह नहीं कहा कि अश्विनी वैष्णव इस्तीफा दें। ऐसा शायद इसलिए कि क्योंकि बिहार में बालासोर के तीसरे दिन ही गंगा पर 1717 करोड़ की लागत से बन रहा निर्माणाधीन पुल ढह गया और भाजपा ने उनसे जोर शोर से इस्तीफे की मांग शुरू कर दी। इसके पहले अडानी ,मामले में भी विपक्ष बंटा नजर आया था, जब शरद पवार ने मामले की जेपीसी जांच से पृथक रवैया अख्तियार किया था।
दरअसल 2024 के लोकसभा चुनाव को मददे नजर नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ विपक्ष की जो मोर्चाबंदी चल रही है, उसे जेपी आंदोेलन का स्वरूप देने की कोशिश हो रही है, जमीनी तौर पर उसका बजूद नहीं। जेपी आंदोलन की अलख शिक्षकों और छात्रों ने जगाई थी, राजनीतिक दल उससे बाद में जुड़े। अलबत्ता यह उसी तरह की कोशिश है, जो 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले तेलगू देशम के नेता उन्हीं चन्द्राबाबू नायडू ने की थी जिसकी परिणीत जगजाहिर है, और जो विगत तीन जून को अमित शाह से मिले थे ताकि उनके और भाजपा के बीच कोई करार इकरार हो जाए।
(विश्लेषक न्यूज जंगल मीडिया के दिल्ली एनसीआर के विशेष संवाददाता हैं)