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अंग्रेजों से लोहा लेने वाले तात्या टोपे की मौत आज भी अनसुलझी पहेली

News Jungal desk : कानपुर। आज़ादी की पहली लड़ाई के महान योद्धा तात्याटोपे की बहादुरी के किस्सों से इतिहास भर पड़ा है। पर उनकी मौत शहादत थी या स्वाभाविक यह एक पहेली बनी हुई है। चलिए देखते हैं उनके वंशज क्या कहते हैं। पराग टोपे अपने अध्ययन के आधार पर दावा करते हैं कि तात्या टोपे की मौत युद्ध के दौरान हुई थी और ब्रिटिश सैनिकों के साथ उनकी यह भिंड़त राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर छिपाबरोद मे हुई थी। ‘ऑपरेशन रेड लोटस’ नामक अपनी किताब में पराग टोपे ने मेजर पेजेट के हवाले से तात्या टोपे के अंतिम युद्ध के बारे में लिखा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक पेजेटे ने लिखा है कि श्वेत अरबी घोड़े पर मौजूद तात्या टोपे की मौत लड़ाई में हुई थी, लेकिन उनके लोग शव ले जाने में कायमाब हुए थे।

उनकी मौत को लेकर ब्रितानी सैनिक कई महीने तक संदेह में रहे। पराग टोपे के मुताबिक तात्या टोपे के साथी राम सिंह, राव सिंह और जिल जंग ये अफवाह लगातार फैलाते रहे कि तात्या टोपे ज़िंदा हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि तात्या टोपे को फांसी दी गई थी लेकिन कुछ लोग ये मानते हैं कि तात्या टोपे साधु की वेशभूषा में बिठुर, येवला और बड़ौदा में घूमते रहे। सच जो भी हो लेकिन 1857 से 1859 के बीच तात्या टोपे ने अपनी असाधारण बहादुरी से अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए थे।
नाना राव पेशवा के कहने पर वह रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजों से युद्ध में रानी का साथ देने गए। शिकस्त के बाद तात्याटोपे वहां से ग्वालियर की तरफ निकल गए। तात्या टोपे चालाकी से बचते रहे। ऐसा लगता है कि वे पहले राजपूताना गए, फिर मालवा और थोड़े समय के लिए गुजरात में भी रहे।
ग्वालियर से निकलने पर वे मथुरा गए और उसके बाद राजस्थान पहुंचे। फिर पश्चिम की ओर गए और वहां से दक्षिण की ओर। इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि वे अपनी यात्राओं की दिशा बदलते रहे थे। टोंक ज़िले के सवाई माधोपुर जाने के बाद वे पश्चिम में बूंदी ज़िले गए। वहां से भीलवाड़ा, गंगापुर गए। वहां से वापसी करते हुए मध्य प्रदेश झालरापाटन पहुंचे। वे कई दिनों तक लगातार यात्रा करते रहे।
इस बीच वह साथियों के साथ आदिवासी लोगों के बीच भी रहे और लगातार कोशिश करते रहे कि ब्रिटिशों के प्रति संघर्ष बंद ना हो। प्रतिभा रानडे ने अपनी किताब ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’ में रावसाहेब और तात्या टोपे के अंतिम दिनों का जिक्र किया है।
तात्या टोपे ग्वालियर के पास शिवपुरी के जंगल में थे, तब उनकी मुलाकात नरवर के राजा मानसिंह से हुई। मानसिंह ने उनके बारे में जानकारी ब्रिटिशों को दे दी। सात अप्रैल, 1869 तात्या टोपे को शिवपुरी लाया गया। उन्हें सिपरी गांव लाया गया और दस दिनों के बाद ही 18 अप्रैल को उन्हें फांसी दे दी गई।
प्रतिभा रानडे ने अपनी किताब में लिखा है कि जिस पत्थर पर तात्या टोपे को फांसी दी गई उस पर अंग्रेजों ने लिखवाया, “यहां 18 अप्रैल, 1859 को कुख्यात तात्या टोपे को फांसी दी गई।”
लेकिन अंग्रेज अधिकारी ऑट्रम सहित कई लोगों का मानना था कि जिस आदमी को फांसी दी गई वह तात्या टोपे नहीं है। यह भी कहा गया कि जिसे फांसी दी गई वह बड़ौदा का भाऊ तांबेकर है। बताते हैं कि तात्या टोपे के चलते कई लोगों को फांसी दी गई थी।

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