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Shardiya Navratri: बेहद रहस्यमयी है मां छिन्नमस्तिका का ये मंदिर, यहीं महाविद्वान बने थे कालिदास, जानिए पूरी कहानी…

माता के मंदिर से पूरब में शमशान घाट और सरोवर है, जहां आज भी तंत्र साधना की जाती है। माना जाता है कि मां के दरबार में जो भी आते हैं, उनकी मुरादें मां अवश्य पूर्ण करतीं हैं। इसीलिए भक्त इन्हें मां सिद्धिदात्री के नाम से भी पुकारते हैं।

News jungal desk: शारदीय नवरात्र से चारों तरफ का माहौल भक्तिमय हो उठा है। आपको बता दे कि नवरात्र के दौरान सिद्धपीठ उच्चैठ भगवती स्थान में रोजाना हजारों की संख्या में श्रद्धालु मां उच्चैठ वासिनी की पूजा अर्चना करने पहुंच रहे हैं। जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर व अनुमंडल मुख्यालय से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर सिद्धपीठ उच्चैठ भगवती स्थान अवस्थित है। यहां मां छिन्नमस्तिका दुर्गा विराजमान हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार उच्चैठ मंदिर का एक ऐतिहासिक महत्व है। ऐसा बताया जाता है कि यहीं मां दुर्गा से वरदान पाने के बाद महामूर्ख कालिदास महाविद्वान बने थे।

आज भी की जाती है तंत्र साधना
सिद्धपीठ उच्चैठ भगवती स्थान में करीब ढाई फीट के शिलाखंड पर मां दुर्गा की प्रतिमा बनी हुई है। मां दुर्गा सिंह पर कमलासन पर विराजमान हैं। इस प्रतिमा में मां दुर्गा का मस्तक नहीं है, इसी कारण इन्हें छिन्नमस्तिका के नाम से भी जाना जाता है। माता के मंदिर से पूरब में शमशान घाट और सरोवर है, जहां आज भी तंत्र साधना की जाती है। माना जाता है कि मां के दरबार में जो भी आते हैं, उनकी मुरादें मां अवश्य पूर्ण करतीं हैं। इसीलिए भक्त इन्हें मां सिद्धिदात्री के नाम से भी पुकारते हैं।

भग्वान राम ने जनकपुर यात्रा के समय की थी यहाँ पूजा
इसके साथ ही इस स्थान का जिक्र त्रेता युग में भी मिलता है। बताया जाता है कि भगवान श्रीराम ने जनकपुर यात्रा के समय मां दुर्गा की पूजा अर्चना की थी। प्राचीन मान्यता के अनुसार मां दुर्गा के मंदिर से पूरब दिशा में एक संस्कृत पाठशाला थी और मंदिर तथा पाठशाला के बीच एक नदी थी। महामूर्ख कालिदास अपनी विदुषी पत्नी विद्योतमा से तिरस्कृत होकर मां दुर्गा भगवती के शरण में उच्चैठ पहुंचे थे और उस संस्कृत पाठशाला के विद्यार्थियों के लिए खाना बनाने का काम करते थे। एक बार भयंकर बाढ़ आयी और नदी का बहाव इतना तेज था कि मंदिर में संध्या दीप जलाने का कार्य जो छात्र किया करते थे, वो सब मंदिर में दीप जलाने जाने से डरते थे। उन विद्यार्थियों ने महामूर्ख जानकर कालिदास को कहा कि आज शाम का दीप आप जला आईये और आप जो गये थे इसकी निशानी मंदिर में कहीं दे दिजियेगा, ताकि सभी को विश्वास हो सके की आप सही में मंदिर गये थे। इतना सुनते ही महामूर्ख कालिदास उस नदी में कूद गये और किसी तरह तैरते-डूबते मंदिर पहुंच गये। मंदिर पहुंचने के बाद पूजा अर्चना की और दीप जलाया। फिर निशान लगाने की बारी आयी तो कालिदास ने जले दीप के कालिख को ही हाथ में लगाकर जब भगवती के मुख में कालिख लगाने के लिये अपना हाथ बढ़ाया तभी माता प्रकट हुईं और बोली मैं तुम्हारी भक्ति से अति प्रसन्न हूं वत्स, मांगों क्या चाहिए। जिसके बाद कालिदास ने त्वरित अपनी बीती हुई कहानी मां दुर्गा को सुनायी। माता ने कालिदास को वरदान देते हुए कहा कि एक रात में तुम जिस पुस्तक को स्पर्श कर लोगे तुम्हें उसका हर अक्षर याद हो जाएगा। वरदान मिलते ही कालिदास अपने पाठशाला में गये और एक ही रात में सभी पुस्तकों को उलट डाला और महामूर्ख से महाविद्वान बन गये।

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