जैसी आशंका थी तुर्की में प्रेसीडेंट तैयब एर्दोगन ने एक बार फिर 52 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त कर न केवल केमाल क्लिकदोर्गोलू को पराजित कर संयुक्त विपक्ष की उम्मीदों पर पानी फेर दिया, बल्कि यह संकेत भी दे दिया की राजनीति के अन्तरराष्ट्रीय समीकरणों की गुत्थियां जल्दी सुलझने वाली नहीं हैं। वैसे तो भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिका के प्रेसीडेंट जो बाइडन सहित अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने एर्दोगन को बधाई ही दी है, लेकिन उनकी नीतियों, तेवर और महत्वाकांक्षाओं को लेकर पिछले पांच-सात साल से न केवल तुर्की के अन्दर बल्कि भारत, पश्चिमी जगत और इस्लामिक देशों में भी सवाल उठते रहे हैं।
जहां तक भारत की बात है तो यहां की राजनीति में तुर्की का उल्लेख परोक्ष रूप 1970 के दशक में हुआ था। उन दिनों समाजवाद की आंच में पककर आए चार युवा राजनेता चंद्रशेखर, जो बाद में देश के अल्पकालिक प्रधानमंत्री भी बने, मोहन धारिया, रामधन और सत्येेंद्र नारायण सिन्हा को युवा तुर्क के नाम से जाना जाता था। यह नाम उन्हें इसलिए मिला था क्योंकि वे चाहे विपक्ष में रहे हों सत्ता में निरंकुशता का विरोध करते थे। चंद्रशेखर ने तो कांग्रेस में रहते हुए 1975 में इमरजेंसी का विरोध किया था और गिरफ्तार भी हुए थे।
मौलिक रूप से यह शब्द तुर्की भाषा के जान तुर्कलेट का ही हिन्दी तर्जनुमा है जो तुर्की में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में आटोमन साम्राज्य की राजशाही के विरोध में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए तत्कालीन सुल्तान अब्दुल हामिद 2 को अपदस्थ करने के लिए वहां के युवाओं सुधारवादी आंदोलन के रूप में चलाया था। इसके चलते तुर्की बदल रहे यूरोप की धर्मनिरपेक्ष लोकतंात्रिक धारा में ही नहीं बल्कि कालांतर में नाटो का भी सदस्य बना। हालांकि तुर्की संवैधानिक रूप से अब भी सेक्युलर स्टेट है लेकिन 2002 में एकेपी पार्टी और एर्दोगेन के सत्ता में आने के बाद से 98 प्रतिशत सुन्नी मुसलमान वाले देेश तुर्की पर इस्लाम का रंग गहरा हुआ है और एर्दोगेन अब वह सब दांवपेच करने में लगे हैं, जिससे उन्हें इस्लामी जगत का खलीफा मान लिया जाए जिस पर अभी सउदी अरब का दबदबा है और जो अब इस्लामिक स्टेट होते हुए भी उदारवाद की ओर बढ़ रहा है।
इस्लामिक जगत में फन्ने खां बनने के लिए तुर्की को पाकिस्तान जैसेे बड़े आबादी वाले देश का साथ जरूरी है इसलिए अन्तरराष्ट्ीय मंचों पर कश्मीर मामले में वह उसकी पुट में पुट मिलाता रहता है। अगस्त 2019 में जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 और धारा 35 हटने के बाद से वह कुछ ज्यादा ही वाचाल हो गया है। यूएनओ की जनरल एसेंबली हो या पाकिस्तान की संसद, यून का मानवाधिकार मंच हो या आई ओसी एर्दोगन स्वयं या उसके राजनयिक इस मुद्दे को उठाते रहते हैं। वह अपने अंदर नहीं झांकता कि वह स्वयं अपने पड़ोसियों सीरिया और अर्मीनिया में क्या कर रहा है।
भारत ने हालांकि कूटनीतिक स्तर उसे हर बार मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है कहकर उसको उसकी जगह दिखाई है, लेकिन मानवता की बात आयी तो साल के प्रारंभ में जब तुर्की और सीरिया में भूकंप आया तो आपरेशन दोस्त के रूप में न केवल भारी संख्या में राहत सामग्री भेजी बल्कि हमारी एनडीआरफ की टीम के जवानों ने लोगों के मलबे से निकालने से लेकर चिकित्सीय सुविधा सुलभ कराई। जो देश हमेशा मुसीबत में दुनिया के साथ खड़ा रहता हो, वह चाहे कोविड के समय दवाओं और टीका सुलभ कराने की बात या प्राकृतिक आपदा में ठोस मदद की वह कैसे अपने ही कश्मीर के लोगों के मानवाधिकारों का हनन कर सकता है, यह बात प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले या आतंकवादियों स्वतंत्रता सेनानी बताने वाले लोगों की समझ से बाहर है
दरअसल एर्दोगन का पांच साल की नई पारी से देश के अन्दर और अधिक निरंकुश तो होंगे ही साथ में इस समय चल रहे वैश्विक घटनाक्रम में अपनी जियोपालिटकल स्थित का धूर्तता से दोहन करने की जुगत में रहेंगे, खासकर तब जब कोविड, रूस-यूक्रेन युद्ध और भूकंप की तबाही से उसकी अर्थव्यवस्था पहले से चरमराई हुई है। विगत वर्ष तुर्की ने अजरबाइजान और पाकिस्तान के साथ मिलकर अर्मीनिया की सीमाओं पर सैन्य अभ्यास कर इस्लामिक ताकत के सामने झुककर रहने का संदेश दिया था। अर्मीनिया ईसाई बहुल देश है। उसकी बंदरघुड़की के सामने मजबूती से खड़े रहने के लिए अर्मीनिया ने भारत से पिनाक सहित दो हजार करोड के सैन्य उपकरण और सामान खरीदे हैं।
एर्दोगन इस समय यूरोप में भी डबल क्रास कर रहे है। वह नाटो के सदस्य के कारण यूक्रेन को डृोन देते हैं और रूसी लड़ाकू विमानों को अपने स्पेश का प्रयोग करने की इजाजत। वह कभी अपने यहां से सीरियाई शरणार्थियों को यूरोपीय देशों के रास्ता देने मार्ग देने डर दिखाते हैं, तो कभी शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बनने की खुली इच्छा जाहिर करते हैं। विगत सितंबर 2022 में उजबेकिस्तान के शहर समरकंद की शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में एर्दोगन इसी इरादे से प्रधानमंत्री मोदी से मिले भी थे। भारत से इस संगठन का सदस्य है और उसकी सहमति बिना तुर्की का यह स्वप्न पूरा नही हो सकता। भारत, चीन, रूस, उजबेकिस्तान किर्गिस्तान तजाकिस्तान और पाकिस्तान की सदस्यता वाला जो संगठन यूरोप को फूटी आंख नहीं सुहाता उसका कोई नाटो देश सदस्य बनना चाहे तो उसकी संगठन के प्रति प्रतिबद्धता पर संदेह होता है।
भारत ने पिछले दिनों कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में पर्यटन को बढावा देने के लिए जी-20 देशों की बैठक में चीन के शिरकत न करने की बात समझ में आती है, क्योंकि अपनी विस्तारवादी नीति और अपने पिट्ठू पाकिस्तान को बीच बीच में पुचकारना बनता है, लेकिन सउदी अरब, तुर्की और मिस्र की गैरहाजिरी कुछ संकेत देती है। इस्लामिक जगत में अपनी वर्चस्वता को बनाए रखने के लिए वे पाकिस्तान के कश्मीरी राग मे संपुट लगा सकते हैं, बात अलग कि भारत से इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, खासकर जिस पाकिस्तान के प्रति वे असल या छद्म प्रेम दिखा रहे है, वह स्वयं अपने को संभाल नही पा रहा। उसके कब्जे वाला कश्मीर गिलागिट बालटिस्तान प्रगति और शांति के लिए भारत की ओर देख रहा हैं। अच्छा होगा कि यदि अपनी नई पारी में एर्गोदन चीजों को मजहब की बजाए वस्तुस्थिति के नजरिए से देखने की कोशिश करें। ध्यान रहे भारत में पाकिस्तान से अधिक मुसलमान है और भारत के अभिन्न अंग कश्मीर के मुसलमान पाक अधिकृत कश्मीर से अधिक सुखी और संपन्न हैं।
(विश्लेषक न्यूज जंगल मीडिया के दिल्ली एनसी आर के विशेष संवाददाता हैं)